छोटे भाई की पत्नी संग संबंधों के लिए पत्नी की हत्या, 43 साल बाद इलाहाबाद HC ने सुनाई उम्रकैद

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जालौन जिले के एक बहुचर्चित हत्या मामले में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 43 साल बाद बड़ा फैसला सुनाया है. वर्ष 1982 में हुई इस घटना में पीड़िता के पति और एक अन्य आरोपित को अदालत ने दोषी ठहराया है. यह वही मामला है, जिसमें निचली अदालत ने सभी आरोपितों को बरी कर दिया था, लेकिन अब हाई कोर्ट ने उस निर्णय को पलटते हुए पीड़िता को न्याय दिलाया है.

जानें क्या था मामला

अभियोजन पक्ष के अनुसार, यह मामला थाना जालौन क्षेत्र का है. 6 अगस्त 1982 को कुसुमा देवी नामक विवाहिता की हत्या उसके ही पति अवधेश कुमार और ससुराल पक्ष के लोगों ने कर दी थी. हत्या के पीछे का कारण बताया गया कि पत्नी कुसुमा देवी को अपने पति पर छोटे भाई की पत्नी के साथ अवैध संबंध रखने का शक था. इसी संदेह ने देखते-देखते खौफनाक रूप ले लिया और कुसुमा देवी की निर्मम हत्या कर दी गई.

इस घटना में पुलिस ने मुकदमा दर्ज किया और मामला अतिरिक्त सत्र न्यायालय के समक्ष पहुंचा. नवंबर 1984 में निचली अदालत ने सबूतों की कमी बताते हुए सभी आरोपितों को बरी कर दिया. उस समय अदालत ने अभियोजन पक्ष के गवाहों की गवाही को कमजोर ठहराया और कहा कि घटना को देखने के लिए जिस टॉर्च का हवाला दिया गया, उसे पुलिस ने जब्त नहीं किया.

हाई कोर्ट ने दिया उलट फैसला

मामले की अपील इलाहाबाद हाई कोर्ट में पहुंची. न्यायमूर्ति राजीव गुप्ता और न्यायमूर्ति हरवीर सिंह की खंडपीठ ने लंबे समय तक चली सुनवाई के बाद पाया कि निचली अदालत का फैसला त्रुटिपूर्ण था. हाई कोर्ट ने कहा कि गवाहों की गवाही पूरी तरह विश्वसनीय थी और उसे हल्के कारणों से खारिज कर दिया गया था. सिर्फ टॉर्च जब्त न करने से गवाही को अविश्वसनीय मानना न्यायसंगत नहीं है.

हाई कोर्ट ने अपने फैसले में यह भी कहा कि पीड़िता की हत्या अंधविश्वास और अवैज्ञानिक सोच का परिणाम थी. अदालत ने इसे अंधविश्वास का उत्कृष्ट उदाहरण बताते हुए टिप्पणी की कि आरोपितों ने पीड़िता की मृत्यु के बाद तुरंत उसका शव जला दिया. उन्होंने न तो पुलिस को सूचना दी और न ही परिजनों को बुलाया. यह जल्दबाजी उनके असामान्य आचरण को दर्शाती है और अपराध की ओर इशारा करती है.

सजा और जुर्माना

अदालत ने मुख्य आरोपित अवधेश कुमार और सह-आरोपित माता प्रसाद को दोषी करार देते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई. दोनों को आजीवन कारावास और 20 हजार रुपए का जुर्माना लगाया गया. साथ ही धारा 201 के तहत तीन साल की कैद और 5 हजार रुपए का जुर्माना भी लगाया गया. अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि दोनों सजाएं साथ-साथ चलेंगी. साथ ही हाई कोर्ट ने आदेश दिया कि दोनों दोषी दो सप्ताह के भीतर संबंधित अधिकारियों के समक्ष आत्मसमर्पण करें.

43 साल बाद न्याय

यह फैसला न सिर्फ कुसुमा देवी के परिवार के लिए न्याय लेकर आया है, बल्कि यह न्यायपालिका की उस क्षमता को भी दर्शाता है, जो दशकों बाद भी न्याय सुनिश्चित कर सकती है. 43 साल पुराना यह मामला आज भी समाज को यह संदेश देता है कि अंधविश्वास और संदेह की आड़ में किया गया अपराध कभी भी कानून की पकड़ से नहीं बच सकता.